लिक्खा नहीं है बैठना, मेरे नसीब में।
बुझ सकी न प्यास,था दरिया क़रीब में।।
पायी जिसे थी हमने,बंजर जमीन थी।
उफ़, खोजती सियासत नसीबा ग़रीब में।।
होता ग़ज़ब का खेल,सियासत के खेल में।
मिलती है दोस्ती को राहत रक़ीब में।।
विस्त्रित बहुत ही होता,मोहब्ब्त का दायरा।
कोई सके न नाप,उसको जरीब में ।।।
होता है सबसे ऊँचा, इश्क़ का मोकाम।
रहता है नूर क़ायम,ख़ुदा का हबीब में।।
कोई तो जा के कह दे,फूलों से बस ये बात।
बन जायें अब वो पत्थर,दुनिया-दरीब में।।
होता नहीं है सानी, उस व्यक्ति का भी कोई।
सीखा है जिसने जीना, वक़्त की तहज़ीब में।
बुझ सकी न प्यास,था दरिया क़रीब में।।
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