चौदह बरिस तक त कछु नाहीं जनली-
सोरह बरिस पे समुझि गइली बतिया
अरुझि गइलें....
खेलै-खेल में मेल बढ़त गइल।
मेलै -मेल में खेल चलत रहिल-
यही बीच कतहूँ हेराय गइल नथिया।।
अरुझि गइलें....
ओनकी पहल पे महल ओनके गइली।
ऊ कछु चाहे पर हम नाहीं चहली-
कइके जतनिया बचाय लेहली थतिया।।
अरुझि गइलें....
अइसही जिनिगिया में आवे तुफनवा।
झट-पट में खेलवा बिगाड़े तुफनवा-
डोलै लागै मनवाँ जस पिपरा कै पतिया।।
अरुझि गइलें....
पंडित-पुजारी कै इहै बा सनेसवा,
काबू में कइले रहा आपुन ई चितवा-
कबहूँ न मिलि पाई खोइल इजतिया।।
अरुझि गइलें....
लूटि जाई गठरी त फूटि जाई किस्मत।
लोग-बाग हँसिहैं जब चलि जाई अस्मत-
लौटि नाहीं अस्मत चाहे पीटी डारा छतिया।।
अरुझि गइलें......
अपनै करमवा त होवै चरितवा।
नीके करमवा से जियरा हरित वा -
कै दा हरित तनिका आपुन धरतिया।।
अरुझि गइलें नैना....।।
No comments:
Post a Comment