तेरे बग़ैर ज़िन्दगी,अधूरी ही रह गयी।
चाहे क़रीब आउं पर,दूरी ही रह गयी।।
मज़हब का भेद था कभी,तो ज़ात-पांत का।
कभी सरहदे मुल्क़ की,मजबूरी ही रह गयी।।
बांधता बन्धन में क्यूं, प्रीति को समाज?
बेलौस महके प्रीति जो,कस्तूरी ही रह गयी।।
सब कुछ मिला तुम्हें तो,भला बस यही मिला!
पाये नहीं गर प्रीति जो,मयूरी ही रह गयी।।
बढ़ता रहा तमाम ही,बातों का सिल-सिला।
पर हो सकी न बात,जो जरूरी ही रह गयी।।
चेहरे कई लगे हुये हैं,एक ही पे यार!
कैसे कहें कि कालिमा,सिन्दूरी ही रह गयी??
सियासत की दावँ-पेंच में,फसना कभी नहीं।
सियासत की हर अदा अब,छूरी ही रह गयी।
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