Sunday, September 6, 2009

जीवन-बगिया

जीवन-बगिया महकेगी कैसे तूँ जो संग नही,
फूलों का बिस्तर चुभे जैसे नश्तर कोई उमंग नही।
जीवन-बगिया....... ॥

सावन भी आया, छायीं घटायें,
चंचल बहे पुरुवायी,
फ़िर भी नही मेरे मन को चैन है,
ऋतु भी बहारों की आई।
रंगों में कोई रंग नही-
जीवन-बगिया........॥

कोयल के मीठे बोल न भाये,
न भाये पपीहा की बानी,
चंदन का लेपन जलन है अगन की,
बूढी भई अब जवानी,
वसूलों का कोई ढंग नही-
जीवन-बगिया........ ॥

बादल व् बरखा, पंछी व् पर्वत,
सागर व् सरिता, सुर सरगम सब,
फीके पड़ गए सारे नज़ारे,
भाये न, बरसे अमरित भी अब,
अब तो उड़े मन-विहंग नही-
जीवन-बगिया.........॥

भौरे है मायूस, कलियाँ उदासी,
साजन की गलियाँ हैं सूनी।
अम्बर पे सब हैं सितारे व् सूरज,
फीकी मगर रौशनी-
सागर में कोई तरंग नही॥
जीवन-बगिया......... ॥

2 comments:

  1. विरही अंतर्मन का पूरा चित्र उकेर कर रख दिया है आपने..बहुत खूब.

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  2. Its really a nice feeling coming after reading this wonderful poem.

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