Saturday, August 24, 2019

श्रीकृष्णचरितबखान



            बन्दउँ सुचिमन किसुन कन्हाई।
            नाथ चरन धरि सीष नवाई ।।
मातु देवकी पितु बसुदेवा।
नन्द के लाल कीन्ह गो-सेवा।।
           राधा-गोपिन्ह के चित-चोरा।
            नटवर लाल नन्द के छोरा।।
गाँव-गरीब-गो-रच्छक कृष्ना।
गीता-ज्ञान हरै जग-तृष्ना ।।
         मातु जसोदा-हिय चित-रंजन।
         बन्धन मुक्त करै प्रभु-बन्दन ।।
कृष्नहिं महिमा बहु अधिक,करि नहिं सकहुँ बखान।
सागर भरि लइ मसि लिखूँ, तदपि न हो गुनगान ।।
        जय-जय-जय हे नन्द किसोरा।
       निसि-दिन भजन करै मन मोरा।।
पुरवहु नाथ आस अब मोरी।
चाहूँ कहन बात मैं  तोरी  ।।
       कुमति-कुसंगति-दुर्गुन-दोषा।
        भागें जे प्रभु करै  भरोसा  ।।
कृष्न-कन्हाइ-देवकी-नन्दन।
जसुमति-लाल,नन्द के नन्दन।।
      चहुँ दिसि जगत होय जयकारा।
      नन्द के लाल आउ मम द्वारा ।।
हे चित-चोर व मक्खन चोरा।
बासुदेव के नटखट छोरा  ।।
      मेटहु जगत सकल अँधियारा।
      ज्ञान क दीप बारि उजियारा  ।।
सुनहु सखा अर्जुन तुमहिं, आरत बचन हमार।
चहुँ-दिसि असुर बिराजहीं,आइ करउ संघार ।।
           श्रीकृष्ण का प्राकट्य-
रोहिनि नखत व काल सुहाना।
रहा जगत जब प्रभु भय आना।।
          गगन-नखत-ग्रह-तारे सबहीं।
          सान्त व सौम्य-मुदित सब भवहीं।।
भयीं दिसा बहु निरमल मुदिता।
तारे रहे स्वच्छ नभ  उदिता  ।।
       निरमल-सुद्ध नदी कै नीरा।
       हरहिं कमल सर खिल जग-पीरा।।
बन-तरु-बिटप पुष्प लइ सोभित।
पंछी-चहक सुनत मन मोहित  ।।
      भन-भन करहिं भ्रमर लतिका पे।
      सीतल बहहि पवन वहिंठा  पे ।।
पुनि जरि उठी अगिनि हवनै कै।
कनसै रहा बुझाइ जिनहिं कै ।।
      सुर-मुनि करैं सुमन कै बरसा।
      होइ अनन्दित हरसा-हरसा ।।
नीरद जाइ सिन्धु के पाहीं।
गरजहिं मन्द-मन्द मुस्काहीं।।
     परम निसीथ काल के अवसर।

(कृष्ण-जन्माष्टमी के अवसर पर मेरे द्वारा लिखित श्रीकृष्णचरितबखान से उधृत वन्दना एवम श्रीकृष्ण का प्राकट्य नामक अध्यायों से प्रस्तुत कुछ चौपाइयां तथा दोहे)

फहरा आज तिरंगा



लालकिला से लालचौक तक,फहरा आज तिरंगा,
रावी-सतलज-सिन्धु-झील डल, का जल हो गया चंगा।
महानदी-कृष्णा-कावेरी, केन-बेतवा-चम्बल-
जश्न मनायें व्यास-नर्बदा,सरयू-यमुना-गंगा।।
                                  फहरा आज तिरंगा........।।
जम्मू औ लद्दाख-काश्मीर, सब मिल नाचें-गायें,
भारत माता के चरणों में,सब जन शीष झुकायें।
लिये राष्ट्र-ध्वज निज हाथों में,चहुँ-दिशि भारतवासी-
महापर्व पर झूमें जैसे,दीपक सङ्ग पतंगा।।
                                  फहरा आज तिरंगा........।।
स्वर्ग समान कश्मीर की घाटी,प्राप्त कर लिया गौरव,
पुनः मिला सम्मान उसे वो,जो था अभी असम्भव।
जकड़े थी पाँवों को उसके,अबतक जो कानूनी धारा-
टूट गयी बेड़ी वो झट-पट,बिना सियासी पंगा।।
                                 फहरा आज तिरंगा........।।
बहुत दिनों की आस अटल की,हो अखण्ड भारत अपना,
फहर गया घाटी में तिरंगा,पूर्ण हो गया  सपना।
होंगे परम प्रसन्न जन-नायक,छोड़ हमें जो चले गये।
देव-लोक में होंगीं खुशियाँ, खेल-कूद-हुड़दंगा।।
                                 फहरा आज तिरंगा........।।
मोदी-शाह की जोड़ी ने मिल,राष्ट्र अखण्ड बनाया,
काश्मीर-लद्दाख का काला,धब्बा शीघ्र मिटाया।
एक निशान,प्रधान एक का,पूर्ण हुआ प्रण देखो-
नव भारत-निर्माण में अब तो नहीं है कोई अड़ंगा।।
                                 फहरा आज तिरंगा........।।
नहीं दूर अब वह दिन मित्रों,जब फहरेगा झण्डा,
गिलगित-बाल्टिस्तान के ऊपर,पाक का फोड़ के भण्डा।
प्राप्त करेगा अपना गौरव,पुनः ये राष्ट्र हमारा-
करके सब नापाक पाक की,गन्दी चाल को नंगा।।
     लालकिला से लाल चौक तक,फहरा आज तिरंगा।।

आया राखी का त्यौहार...



आया राखी का त्यौहार, 
लेके खुशियाँ हज़ार।
भइया-बहना का प्यार,
रिम-झिम सावन की फुहार-आया राखी का त्यौहार।।
रंग-बिरंगी सजी हैं राखी,
हाट-बाज़ार-गलियन में।
लहराते-मुस्काते जैसे,
कुसुम लगें बगियन में।
लेके आभा अपरम्पार-आया राखी का त्यौहार।।
चुनतीं हैं राखी सब बहनें,
देखो सम्हल-सम्हल के।
भइया के मन भाये राखी,
निरखें बदल-बदल के।
पहने अरमानों का हार-आया राखी का त्यौहार।।
प्रेम का धागा हाथ में बाँधे,
बन्धन जनम-जनम का।
चन्दन-रोरी भाल लगाये,
पाये प्यार बहन का।
भइया देता उपहार-आया राखी का त्यौहार।।
राखी बाँधी लक्ष्मीबाई,
जो कर्मा सिंह समर को।
दिया हुंकार उसी ने तब,
भारत-स्वातन्त्र्य ग़दर को।
अनुपम माटी का प्यार-आया राखी का त्यौहार।।
पतले इन धागों में मानो,
अद्भुत शक्ति है प्यारे।
मिल कर तोड़ सके न इनको,
जग के अन्धड़  सारे।
इनमें सतत बहे रसधार-आया राखी का त्यौहार।।
लेके खुशियाँ हज़ार।।

उमड़ चाहतों का...




आज फिर याद आया उन्हें देखकर,
जो गुजरा ज़माना वर्षों पहले था छाया।
फिर जग उठी इक ललक ज़िन्दगी में-
उमड़ चाहतों का समन्दर फिर आया।।
     अरमान-पेटिका पे जो ताले जड़े थे,
     वो खुलने लगे पा इशारा किसी का।
     डूबती एक किश्ती को जैसे अचानक,
     मिल गया हो सुरक्षित किनारा नदी का।
     चाहतें सूखे पत्ते सी जो मर रहीं थीं-
      उन्हें प्रेम-वर्षा ने फिर से जिलाया।।
                            उमड़ चाहतों का.....।।
अतृप्त प्यास लेके वो मन का पंछी,
जा बैठा अंधेरे में छुप कर कहीं।
कभी हो विकल ढूंढता आशियाँ वो,
खिन्न होकर पुनः लौट आये वहीं।
उसे मिल गया ठौर फिर से अचानक-
बहारों ने दौरे खिज़ां को भगाया।।
              उमड़ चाहतों का.........।।
सूखे दरख़्तों पे पत्तों का उगना,
होता नहीं कभी सम्भव जगत में।
टूटे हुए बिखरे शीशे के टुकड़ों का,
जुड़ना क़ुदरती न सम्भव जगत में।
पर कर दिया आज सम्भव असम्भव को-
जो मन मेरा पा दरस मुस्कुराया।।
                उमड़ चाहतों का........।।
घुल गयी अब महक सांस की सांस में,
सारे शिकवे-गिले बदले विश्वास में।
तार नज़रों के नज़रों से अब जुड़ गए,
दिल जुड़ गए फिर मिलन-आस में।
थम गयी थी जो पहिया रथ ज़िंदगी की-
पुनः आज उसको किसी ने चलाया।।
    उमड़ चाहतों का समन्दर फिर आया।।

सबका झण्डा एक...



नवभारत-संकल्प तो केवल इतना है,
सबका झण्डा एक तिरंगा अपना है।
हुआ अभिन्न अंग कश्मीर पुनः भारत का-
अगस्त पाँच उन्नीस को,पूर्ण हुआ वो सपना है।।
                             सबका झण्डा एक......।।
सबका है कश्मीर और कश्मीर के सब हैं,
हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख-इसाई, कश्मीरी अब हैं।
कर न सकेगी उन्हें अलग,अब कानूनी धारा-
नव निर्मित इतिहास का बस यह कहना है।।
                         सबका झण्डा एक......।।
पलट गया इतिहास सियासतदानों का,
बिगड़ गया जो खेल था सत्तर सालों के।
मिला पटल आज़ादी का उस माटी को-
स्वर्ग सरीखी अनुपम जिसकी रचना है।।
                       सबका झण्डा एक......।।
हुआ अन्त अब हिंसावाद हिमायत का,
अलगाववाद की बेढब नीति रवायत का।
धरे रह गये ताख पे सब मन्सूबे उनके-
जिनका लक्ष्य तो केवल ठगना है।।
                    सबका झण्डा एक......।।
हुईं दुकानें बन्द सभी धर्मान्धों की,
कट्टरपन्थी ताकत कुत्सित धन्धों की।
नयी दिशा अब मिलेगी सब नवयुवकों को-
करेंगे निज उत्थान स्वयं जो करना है।।
                 सबका झण्डा एक......।।
देश सुरक्षित रहेगा,साथ कश्मीर भी,
बिगड़ेगी अब नापाक पाक तक़दीर भी।
होगा शीघ्र विनाश विरोधी ताक़त का-
चाल बेढंगी दुष्टों की नहिं सहना है।।
                सबका झण्डा एक......।।
होगा पूर्ण विकास स्वर्ग सी घाटी का,
होगा अब आग़ाज़ नयी परिपाटी का।
पुनः खिलेगा फूल सुगन्धित मानवता का-
भारत का जो रहा सदा से गहना है।।
      सबका झण्डा एक तिरंगा अपना है।।

विपदा काल काम जे आवै...



विपदा काल काम जे आवै।साँचा मीत उहइ कहलावै।।
साँच मीत बस उहवै भाई।गूढ़ रहस जे रहइ छिपाई।।
करै प्रचार मीत जस-कीर्ती।दिग-दिगन्त जहँ तक रह धरती।।
तजै न साथ-संग केहु भाँती।जरै-बुते जस दीपक-बाती।।
नहिं कोउ राग-द्वेष दोउ मीता।तजहिं न सँग बरु जग विपरीता।।
लगै चोट इक रोवै दूजा।रँग बदलै जस लखि खरबूजा।।
जीवहि सँग माया लिपटानी।जानउ इहवै मीत-कहानी।।
जाको मिलै मीत जग साँचा।तासु भागि उत्तम बिधि राँचा।।
करै मीत मीत सेवकाई।सेवा-भावहि होय भलाई।।
दोहा-कृष्न-सुदामा मित्रता,जानै जग-संसार।
चिउड़ा लइ मुट्ठी भरै,सम्पति दीन्ह अपार।।
                                               गीता-सार,नीति-वचन

Sunday, August 4, 2019

सब मिल पौध लगाओ...



अबकी इस बरसात का,मत पूछो क्या हाल?
जलाधिक्य से हो गया,पूरा देश बेहाल।
                              चहूँ-दिशि पानी-पानी-
                              इन्द्र देव की मेहरबानी।।
महाराष्ट्र गुजरात से ले कर,असम और बंगाल,
उत्तराखण्ड-हिमाचल का भी,होवे ख़स्ता हाल।
                              डूबते राजस्थानी-
                              इन्द्र देव की मेहरबानी।।
झारखण्ड-बिहार-उड़ीसा, केरल भी जल-प्लावित,
तमिलनाडु औ एम.पी.-यू.पी.,सभी हैं बाढ़-प्रभावित।
                        सभी जनों की दुखद कहानी-
                              इन्द्र देव की मेहरबानी।।
जम्मू औ कश्मीर में पर्वत,भरभराय भहरायें,
जलाघात से गिर चट्टानें,वज्रपात बन  जायें।।
                          मिले न पथ की कोई निशानी-
                              इन्द्र देव की मेहरबानी।।
उमड़ि-घुमड़ि जब बरसें बादल, हाय-हाय मच जाय,
नदी-खेत-खलिहान-सड़क का,सब अन्तर मिट जाय।
                          क्रूर प्रकृति की कारस्तानी-
                              इन्द्र देव की मेहरबानी।।
पेड़ काटना और प्रदूषण,होता बहुत ही घातक,
तापमान का घटना-बढ़ना,जीवन-लीला-नाशक।
                        करे जगत की झट-पट हानी-
                               इन्द्र देव की मेहरबानी।
मान प्रकृति को पर्व एक अब,सब मिल पौध लगाओ,
हरी-भरी पृथ्वी को रखना,अपना लक्ष्य बनाओ।
                              करो न कोई आना-कानी-
                               इन्द्र देव की मेहरबानी।।

शेष रह गयी...



शेष रह गयी स्मृति केवल,
और नहीं कुछ शेष रहा।
अपने जन यदि करें स्मरण-
समझो,यही विशेष रहा।।
         शेष रह गयी स्मृति केवल.........।।
पुनश्च-अक्षर-सुमन हैं अर्पित मेरे,उस सच्चे अध्यापक को,
अध्यापन ही लक्ष्य था जिसका,उस के.पी.संस्थापक को।।


Saturday, July 27, 2019

नहीं निशा यदि...



नहीं निशा यदि होती जग में,होता नहीं प्रभात कभी,
बिन प्रभात नहिं जग को मिलती,जीवन की सौगात कभी।
तमाच्छन्न ब्रह्माण्ड भी रहता,एक-अकेला-वीराना-
जीव-जन्तु बिन सूना-सूना,ब्रह्म की न होती बात कभी।।
                                        नहीं निशा यदि...........।।
रजनीकान्त बिना रजनी के,पूजनीय कैसे होता?
निज प्रकाश किरणों से दिनकर,कैसे भूमण्डल धोता?
नहीं रात्रि यदि होती तो ये तारे कभी नहीं दिखते-
ख़ुद प्रकाश में दिखलाने की,होती नहिं औक़ात कभी।।
                                        नहीं निशा यदि..........।।
देती राहत रात ही केवल,जलचर-थलचर-नभचर को,
धरती से अम्बर तक मिलता,सुख-सुक़ून हर वपुधर को।
अर्जित करते सभी हैं प्राणी,सोकर ही नव ऊर्जा को-
कभी न ज़िन्दगी जीवन पाती, यदि नहिं होती रात कभी।।
                                         नहीं निशा यदि.........।।
परम पवित्र पूजा की बेला,यह बेला अरदास की,
यही बाइबिल औ क़ुरान की,आयत के अभ्यास की।
यद्यपि कि फँस जाते भौंरे,रात कमल-पंखुड़ियों में-
फिर प्रभात कर करे मुक्त,नहिं होता प्रणाघात कभी।।
                                         नहीं निशा यदि.........।।
पूनम की ही रात को चन्दा,मिलता गले समन्दर से,
बाँह पसारे सिन्धु भी मिलता,मुदित मना अभ्यन्तर से।
चित्ताकर्षक-मधुर-मनोहर,ऐसा संगम कैसे होता?
यदि रजनी निज आँचल ताने,देती नहिं यूँ साथ कभी।।
                                         नहीं निशा यदि.........।।
करे संयमी निशा-जागरण,जन-साधारण सोते हैं,
सन्त-संयमी पाये सदगति, मूरख जन फल खोते हैं।
गीता का यह सन्देश है जिसने,जाना वही सयाना है-
जल-सिंचन बिन किसी भी तरु पर,नहिं उगता फल-पात कभी।।
नहीं निशा यदि होती जग में,होता नहीं प्रभात कभी।।

नायाब सुख है देता...



श्रृंगार और सावन दोनों का मेल अनुपम,
गोरी औ गाँव-आँगन सँवरे जब बरसे झम-झम।
तट-बन्ध तक उमड़ के जब भी है बहती सरिता-
नायाब सुख है देता पानी-पवन का संगम।।
     कजरी के बोल रसमय,लयबद्ध मोर-नर्तन,
सीवान-गाँव-गलियों में,चारो तरफ है नन्दन।
अँगड़ाइयाँ हैं लेतीं जब भी फुहारें रिम-झिम-
लगता है करने नर्तन,विरही हृदय भी छम-छम।।        
                          नायाब सुख है देता.........।।
मन का पखेरू चाहे उड़ के गगन को छू ले,
अमरित जो नभ से टपके,पी के गमों को भूले।
उड़-उड़ के बादलों सँग, इठला के जग से कह दे-
सावन न हो तो तेरा,कोई नहीं है दम-ख़म।।
                           नायाब सुख है देता.......।।
धानी चुनर सी लहरें,खेतों में सारी फसलें,
जी चाहता झपट सुख,सारा धरा का धर लें।
सावन के सांवरेपन में,निश्चित है बात कुछ तो-
रहता भिगोता बादल, आँचल अवनि का हर-दम।।
                          नायाब सुख है देता........।।
झूले का यह महीना,ऋतुओं का है नगीना,
जल दे के इस धरा को,करता सुखी है जीना।
इसकी कृपा से धरती,सोना सदा उगलती-
आबो-हवा हो शीतल,जाता है जिसमे मन रम।।    
                           नायाब सुख है देता.......।।
अभिषेक जल से होता,सावन में श्री शिवा का,
जल-वृष्टि का महीना यह,शीतल पवन-हवा का।
है प्रेमियों व भक्तों का अद्भुत यही ठिकाना-
इसे भाव-गीत भाये,भोले की बोली बम-बम।।
      नायाब सुख है देता,पानी-पवन का संगम।।

लिया है समझ जो...



लिया है समझ जो किताबों की भाषा,
दरख़्तों की भाषा,परिन्दों की भाषा।
वही असली प्रेमी है क़ुदरत का मित्रों-
उसे ज़िन्दगी में न होती  निराशा।।
                 लिया है समझ जो.......।।
बहुत ही नरम दिल का होता वही है,
नहीं भाव ईर्ष्या का रखता कभी है।
बिना भ्रम समझता वो इन्सां मुकम्मल-
सरिता-समन्दर-पहाड़ों की  भाषा।।
                  लिया है समझ जो.......।।
जैसा भी हो, वो है जीता ख़ुशी से,
न शिकवा-शिकायत वो करता किसी से।
ज़िन्दग़ी को ख़ुदा की अमानत समझता-
लिए दिल में रहता वो अनुराग-आशा।।
                 लिया है समझ जो........।।
खेत-खलिहान,बागों-बगीचों में रहता,
सदा नूर रब का अनूठा है  बसता।
यही राज़ जिसने है समझा औ जाना-
मुश्किलें भी न उसको हैं करतीं हताशा।।
                 लिया है समझ जो........।।
हरी घास पे सारी शबनम की बूंदें,
एहसास मख़मल का दें आँख मूंदे।
रवि-रश्मियों में नहायी सुबह तो-
होती प्रकृति की अनोखी परिभाषा।।
                 लिया है समझ जो........।।
हक़ मालिकाना है क़ुदरत का केवल,
बसाना-गवांना बस अपने ही सम्बल।
गर हो गया क़ायदे क़ुदरत उलंघन-
ज़िन्दगी तरु कटे बिन कुल्हाड़ी-गड़ासा।।
                लिया है समझ जो.........।।
प्रकृति से परे कुछ नहीं है ये दुनिया,
प्रकृति से ही बनती-बिगड़ती है दुनिया।
नहीं होगा सम्मान विधिवत यदि इसका-
जायगा यक़ीनन थम, ये जीवन-तमाशा।।

निष्काम कर्म-फल होता...



होती है ज़रूरत त्याग की रिश्तों को निभाने में।
निष्काम कर्म-फल होता है अति मीठा खाने में।।
     निज सुख-चिन्तन होता पशुवत दुनिया माने है,
     पर-उपकार ही लक्ष्य हो जिनका सन्त-सुजाने हैं।
     सुख पाती माँ स्वयं जाग सुत-सुता सुलाने में।।
                                निष्काम कर्म-फल होता.....।।
खा प्रहार पत्थर का तरुवर देता फल मनचाहा,
कभी न कहता सिंधु नीर दे,तुमने कहर है ढाहा।
करे कृपणता कबहुँ न नीरद जल बरसाने में।।
                                निष्काम कर्म-फल होता.....।।
बिना कहे नित पवन है बहता जीव-जन्तु-हितकारी,
करके हरण निशा-तम चन्दा बनता जग-सुखकारी।
स्वयं को माने धन्य भाष्कर,दिवस-उजाला लाने में।।
                                निष्काम कर्म-फल होता.....।।
अन्न-सम्पदा पृथ्वी देती मुक्त हस्त से जन-जन को,
बिना मोल सुन कलरव मिलता,सुख-सुक़ून हर तन-मन को।
लिपट पतंगा दीप-शिखा से पाता सुख जल जाने में।।
                                निष्काम कर्म-फल होता.....।।
मिले इत्र सी खुशबू,हर वक्त सुगन्धित मधुवन से,
कोयल गाती गीत सुरीला,बैठ शिखा तरु उपवन से।
चन्दन करे कुठार सुगन्धित,यद्यपि कि कट जाने में।।
                                 निष्काम कर्म-फल होता.....।।
गिरि के उच्च शिखर से गिरता,जल-प्रपात मन भाये,
मेघाच्छन्न गगन को चित-मन,निरखि-निरखि हरषाये।
मिले प्रकृति को सुख असीम,निज छटा दिखाने  में।।
       निष्काम कर्म -फल होता है अति मीठा खाने में।।

Sunday, July 14, 2019

रिम-झिम हो बरसात...



रिम-झिम हो बरसात,
पिया नहीं साथ-कहो क्या रह पाओगे?
सावन की हो रात,
पिया नहीं साथ-कहो,क्या रह पाओगे?
    मेघ-गरजना से दिल दहले,
     बिजली आंख मिचौली खेले।
      लिए विरह-आघात-कहो, क्या रह पाओगे?
धरती ओढ़े धानी चुनरिया,
बलखाती-इठलाती गुजरिया।
वन-उपवन भरे पात-कहो, क्या रह पाओगे?
      सन-सन बहे पवन पुरुवाई,
       कारी बदरिया ले अंगड़ाई।
       सिहर उठे तन-गात-कहो, क्या रह पाओगे?
बस्ती-कुनबा, गांव-गलिन में,
बाग़-बग़ीचा, खेत-नदिन में।
क़ुदरत की सौग़ात-कहो, क्या रह पाओगे?
     अनुपम प्रकृति-प्रेम-रस बरसे,
      निरखि-निरखि जेहि हिय-चित हर्षे।
      विह्वल मन न आघात-कहो, क्या रह पाओगे?

किसी शक्ति ने जन्म लिया...



जब -जब पाप बढ़ा धरती पे,
किसी शक्ति ने जन्म लिया।
पाप से बोझिल इस धरती को,
पाप-फ़ांस से मुक्त  किया।।
        जीवन कभी न बच पाया है,
       झूठ के अलम्बरदारों से।
       कामी, कपटी,कुटिल,प्रलोभी,
       जुर्म के ठेकेदारों  से।
       साफ-पाक-बेबाक मोहब्ब्त,  
       जब -जब जग में रोई है।
       उसकी ही मुस्कान की ख़ातिर -
       किसी शक्ति ने जन्म लिया।।
नकबजनी होती रहती है,
मन्दिर-मस्ज़िद-गुरुद्वारे में।
क्या-क्या नहीं हुईं हैं बातें,
गिरजाघर के बारे में।
इंसान बना इंसाफ़ का दुश्मन,
जब-जब इस धरती पे।
लूट-पाट-उत्पात रोकने-
किसी शक्ति ने जन्म लिया।।
     लहू-लुहान जब हुई मनुजता,
     रक्त-पात चहुँ ओर हुआ।
     चन्दन जब त्यागा शीतलता,
     अमृत विष घनघोर हुआ।
     नहीं बचे जब पोथी-पन्ना,
     शिक्षा-सदन कंगाल हुआ। 
     तालीम -इल्म-रक्षार्थ जगत में-
     किसी शक्ति ने जन्म लिया।।
राह सही इंसान चुनें सब।मेल-भाव से पलें-बढ़ें ।
हक़-हुक़ूक़ को ध्यान में रख के,
आपस में नहिं लड़ें-भिड़ें ।
कोई दुशासन जब-जब करता
अबला का यदि चीर-हरण।
नारी-लाज बचाने ख़ातिर-
किसी शक्ति ने जन्म लिया।।
     पर्वत-शिखर, समन्दर-तट तक,
     चहुँ-दिशि विलसे, दिगदिगन्त तक।
     एक जाति हो,एक धर्म हो,
     एक भाव मानुष -मन तक।
      जब इसके विपरीत हुआ कुछ,
      नामाकूल सलूक़ हुआ कुछ।
     सुख-सुकून को क़ायम रखने-
     किसी शक्ति ने जन्म लिया।।

Saturday, July 13, 2019

डर है...



डर है,सदानीरा गंगा कहीं कदा नीरा-न बन जाये।
मसलन,धरती पर कभी सतत बाहिनी-पाप नाशिनी-
लोक तारिणी-पवित्र सलिला बहती थी कोई गंगा,
जिसमें पर्वों-उत्सवों पर लोग डुबकी लगा कर -
तर्पण कर समझ लेते थे स्वयम को पाप-मुक्त।
     डर है,हरी-भरी वनस्पतियों-पेड़-पौधों से आच्छादित,
     जंगल के पूर्णरूपेण अमंगल का ,
     अर्थात,थी कभी शोभायमान वसुन्धरा पेड़-पौधों से,
     तनें जिनके सख़्त, पर भीतर गीली लकड़ी की,
      कोमल मांसलता से युक्त -
      शाखों पे जिनकी विराजमान रहते थे हरे पत्ते,
       रंग-बिरंगे पुष्प एवम फल-कुछ खट्टे,कुछ मीठे।
डर है-हरे-भरे जंगल की जगह
कठोर-निष्प्राण -निश्चेत कंक्रीट के जंगल की -
जो जंगल तो है-बृक्षों वाला -शाखों वाला-
फूल-पत्तों व फल वाला।
    मगर, वृक्षों के तने हैं-ईंट-पत्थर-सीमेंट के,
    बड़े ही कठोर,शाखाएं-बेड-रूम,ड्राइंग-रूम,
   गेस्ट-रूम,वाश-रूम आदि-आदि।
   ऐसे जंगल मे पंछियों की कलरव की जगह,
   सुनायी देता है-आपसी खींच-तान, मज़हबी
   मन-मुटाव,लड़ाई-झगड़े,अत्याचार-हत्या  व
   लूट-पाट का बेसुरा रव।
डर है,मिल्स-फैक्ट्रीज-आधुनिक औद्योगीकरण
की चपेट में इसके आने का-
डर है-वायु-प्रदूषण के उस भयावह स्वरूप का-
जब जीव तो जन्म लेगा-
पर,हो जाएगा महरूम भरपूर बचपन से-
किशोरावस्था-युवावस्था-बुढापा की बात तो दूर।
    बची-खुची मनुजता करेगी शोषण एक-दूजे का,
   बुझायेगी प्यास एक-दूसरे के रक्त से,
   मिटाएगी भूख एक-दूसरे की मज्जा-मांस से,
    हो जायेगा मुक़म्मल अभाव,
    जल-वायु-अन्न-फूल-फल का-
     विनाश-सर्वनाश!!

पत्थर लुढ़क-लुढ़क के...



पत्थर लुढ़क-लुढ़क के भगवान बनता है,
शैतान खा के ठोकर,इन्सान बनता है।
करके मदद यतीमों की निःस्वार्थ भाव से-
इन्सान अपने मुल्क़ की पहचान बनता है।।
    होती हिना है सुर्ख़,पत्थर-प्रहार से,
    धीरज न खोवे सैनिक,सीमा की हार से।
    अपने वतन की माटी पर,प्राण कर निछावर-
    बलिदान की मिसाल वो, जवान बनता है।।
माता समान माटी, माटी समान माता,
परम पुनीत ऐसा संयोग रच विधाता।
जीवन में हर किसी को,मोकाम यह दिया है-
कर के नमन जिन्हें वो,महान बनता है।।
    लेना अगर सबाब, तुमको ख़ुदा का है,
    कर दो उजाला मार्ग जो,तम की घटा का है।
    भटके पथिक को रौशनी,दिखाते रहो सदा-
    करने वाला ऐसा जाहिर जहान बनता है।।
वादा किसी को करके,मुकरना न चाहिए,
पद उच्च कोई पा के,बदलना न चाहिए।
धन-शक्ति के घमण्ड में,औक़ात जो भूला-
इन्सान वो समझ लो,हैवान बनता है।।    
महिमा कभी भी सिंधु की,घटते नहीं देखा,
    घमण्ड को समर्थ में,बढ़ते नहीं देखा।
   देखा नहीं सज्जन को कभी,कड़ुवे वचन कहते-
   नायाब इस ख़याल से ही,ईमान बनता है।।
जल पे लक़ीर खींचना, सम्भव नहीं यारों,
पश्चिम उगे ये भास्कर,सम्भव नहीं यारों।
आना अगर है रात को तो आ के रहेगी-
निश्चित प्रभात होने का,विधान बनता है।।
    ऐसे ही ज़िन्दगी की गाड़ी को हाँकना,
    चलते रहो बराबर,पीछे न झाँकना।
    दीये की लौ समक्ष,तूफ़ान भी झुकता-
    तूफ़ान भी दीये का,क़द्रदान बनता है।।

कोई किसी का दुनिया में...



कोई किसी का दुनिया में होता नहीं सगा,
अन्तिम घड़ी में रिश्ते,देते हैं सब दगा।
मां-बाप-भाई-भगिनी,होते हैं चार दिन के-
पिंजरे में क़ैद पंछी,हो जाता झट दफ़ा।।
      कलियाँ चमन में खिल के,कुछ पल में बिखरतीं,
      रवि-रश्मियाँ प्रखर भी,हर शाम को ढलतीं।
      हो जातीं दफ़्न सांसें, झट-पट बिना रुके-
      रक्खा जिन्हें था सबने,सीने से यूँ लगा।।
सम्बन्ध अग्नि-जल का,शाश्वत-यथार्थ है,
आकाश औ पवन का,अविरल-अबाध है।
सरिता का जल है मिलता,सागर से जा गले-
निःस्वार्थ प्रेम-रस में,सम्बन्ध यह पगा।।
      बर्फीली चोटियों पे,चन्दा की जो चमक,
      फूलों पे भनभनाते,भौरों की जो भनक।।
      कल थी औ आज है,रहेगी यह सदा-
     कोई नहीं सकेगा,इसको कभी भगा।।
ब्रह्म से अक्षर औ अक्षर से ब्रह्म है
सम्बन्ध यह चिरातन, इसमें न छद्म है।
ब्रह्म को तो केवल,साक्षर ही समझता-
कोई सके ना ब्रह्म के,अस्तित्व को डिगा।।
     सृष्टि के पहले औ न बाद सृष्टि के, 
     न था,न कुछ रहेगा,सिवाय वृष्टि के।
     बस ब्रह्म ही है शाश्वत औ ब्रह्म रहेगा-
     अभिद-अमिट-अक्षत-असुप्त औ जगा।।