Tuesday, September 1, 2009

ये पिशाचन! अगन जो जली

राम ! नगरी तेरी हो गई,
अब समर साधना-स्थली।
थम गयीं घंटियाँ मंदिरों की,
बज उठी वाद्य रन-मण्डली॥ राम ! नगरी...... ॥

भावना के सुमन शुष्क हो,
भूस्खलित हो सिसकने लगे।
दीप आस्था के जो प्रज्वलित थे,
बुझ-बुझ के सिमटने लगे।
शान्ति, सद्भाव की बीथियों में,
वायु आक्रोश की बह चली॥ राम ! नगरी...... ॥

शांत, शीतल सलिल सरिता सरयू,
हो गया अब उदधि क्रोध-संहार का।
प्रीति-सौहार्द बोझिल तरंगे,
बन गयीं केन्द्र अब तप्त अंगार का।
इनमे भक्तों व् श्रद्धालुओं की,
तर्पण करते जलीं अंजली॥ राम ! नगरी....... ॥

राज-पथ पर पड़े क्षत-विक्षत शव,
साक्ष्य हैं क्रूरता, निम्नता के।
भूल जाने हुई किस पटल से,
पलटे अध्याय सब शिष्टता के।
हो गई भस्म अब अस्मिता भी,
ये पिशाचन ! अगन जो जली॥
राम ! नगरी तेरी हो गई, अब समर साधना-स्थली॥

3 comments:

  1. बहुत ही सशक्त कविता. सुन्दर रचना के लिये आभार.

    कृप्या word verification हटा दे, टिप्पणी करने में आसानी होती है.

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  2. राज-पथ पर पड़े क्षत-विक्षत शव,
    साक्ष्य हैं क्रूरता, निम्नता के।
    भूल जाने हुई किस पटल से,
    पलटे अध्याय सब शिष्टता के।
    हो गई भस्म अब अस्मिता भी,
    ये पिशाचन ! अगन जो जली॥
    राम ! नगरी तेरी हो गई, अब समर साधना-स्थली॥

    bahut hi lajawaab rachna, badhai sweekaren.

    aapka mere blog par aane aur mera follower banne ke liye hardik dhanyawaad.

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