Monday, August 31, 2009

भ्रमित मन

सूर्यास्त होने पर जब साँझ होती है
यथार्थ से अनभिज्ञ मन,
अन्धकार के भय से ठिठुर सा जाता है॥
नादान बेखबर पंछी की भांति
जो अचानक बाज की चंगुल में फँस जाता है,
चीख उठता है, चिल्ला उठता है, अन्धकार की
चपेट से मूरख मन॥
इसे अपनी नियति का आभास नही,
यदि संज्ञान है भी तो अज्ञान बन जाता है,
रोज़ सीखता है, रोज़ भूल जाता है,
निश्चेष्ट, निरुत्साहित, ठगा सा, कटा-कटा सा-
यह कम्पित मन॥
इसे तलाश रहती है हर पल,
शायद किसी चराग की।
ऐसे चराग की जो कभी बुझे नही,
भला, ऐसा कभी हो सकता है कि-
चराग जले और बुझे नही!
जान ले रे भ्रमित मन॥
चराग अन्धकार के क्षणिक लोप का एक पल है,
और है भी तो शायद एक दिखावा है, एक छल है।
एक मृगतृष्णा है-
चमकती जल-बूंदों सी जलती रेतों की,
देख ले रे, चकित मन॥
अन्धकार की ओर जाना प्रकाश से,
नही, कदापि ठीक नही।
नही, यही ठीक है; येही सत्य है।
नही तो चराग तले अँधेरा कैसे होता?
वस्तुत:, हम जितना ही तलाश करते रहते हैं,
प्रकाश की अथवा चराग की,
उतना ही भटकते रहते हैं जीवन की
उपत्यका में-
अंधकार ही है जिसकी अन्तिम परिणति,
कुछ क्षोभ होता है, बढ़ जाती है उद्विग्नता,
पर ऐसा नही-अन्धकार ही तो होता है-
उदगम-स्थल प्रकाश का-
जैसे भानु प्रकाश का निशि-तम से
शुभ प्रभात के साथ उदीयमान होना।
समझ ले रे, विकल मन॥

Tuesday, August 25, 2009

दास्ताने ज़िन्दगी....

आज अपने जनम-दिन मना लीजिये,
कल ना जाने कहाँ शाम हो जायेगी?
ज़िन्दगी एक पल है उजाले भरी,
फिर अंधेरों भरी रात हो जायेगी॥ आज अपने...... ॥

धूप है, छाँव है, भूख है, प्यास है।
आस-विश्वास इसमें ही प्रतिघात है।
चलते-चलते यूँ रस्ते बदल जाते हैं,
देखते-देखते बात हो जायेगी॥ आज अपने..........॥

है ये पाषाण से भी कहीं सख्त-दिल,
पुष्प से स्निग्ध, स्नेहिल औ कृपालु है।
तोला मासा बने, मासा रत्ती कभी,
जलते शोलों पे बरसात हो जायेगी॥ आज अपने....॥

ज़िन्दगी दास्ताँ प्यार-नफरत की है,
दोस्ती, दुश्मनी, इल्म, शोहरत की है।
एक पल में हमें बख्श देती अगर,
दूसरे में हवालात हो जायेगी॥ आज अपने ..........॥

स्वार्थ में है जगत सारा डूबा हुआ,
हित यहाँ गैर का गौड़ अब हो गया।
लोग अपने में गर इस तरह खो गए,
बदबख्ती की हालत हो जायेगी॥ आज अपने........॥

लाख खुशियाँ यहाँ हम मनाएं मगर,
याद रखना, हमेशा यही दोस्तों।
आज हैं हम यहाँ, कल न जाने कहाँ,
अजनबी से मुलाक़ात हो जायेगी॥ आज अपने.....॥

आदमी, आदमी को बना दीजिये....

हाथ से हाथ अपना मिला लीजिये,
बात बिगड़ी जो अरसे से बन जायेगी।
दुश्मनों को गले से लगा लीजिये,
दुश्मनी दोस्ती में बदल जायेगी। बात बिगड़ी....... ॥

लोग मिलते हैं, मिल के बिछड़ जाते हैं,
पर बिछड़ने के पहले कुछ कर जाते हैं।
आप भी अपने जौहर दिखा दीजिये,
मौत भी एक पल को ठहर जायेगी। बात बिगड़ी.....॥

लोग खाते हैं क़समें मुकर जाते हैं,
यहाँ वादे, इरादे बदल जाते हैं।
आप भी अपने वादे निभा दीजिये,
चंद लम्हों में ये साँस थम जायेगी। बात बिगड़ी.....॥

ज़िन्दगी जीना है, मान-सम्मान की,
धर्म, ईमान की, त्याग-बलिदान की।
परचमे जोश को यूँ हवा दीजिये,
दुश्मनों की दियानत दहल जायेगी। बात बिगड़ी.....॥

फ़र्ज़ इंसानियत का निभाना ही है,
आदमी की तरह दिन बिताना ही है।
आदमी, आदमी को बना दीजिये-
ज़िन्दगी एक पल में संवर जायेगी॥ बात बिगड़ी......॥

Sunday, August 23, 2009

क्या बात है!

काम को, क्रोध को, लोभ को, मोह को,
गर जहाँ से मिटा दें तो क्या बात है!
राह में जो गिरा, गिर के उठ ना सका,
गर गिरे को उठा दें तो क्या बात है!

रोज़ जीते हैं हम सिर्फ़ अपने लिए,
ऐसा जीना भला कैसा जीना हुआ!
सिर्फ़ तन के लिए ना-वतन के लिए,
जो जियें हम यहाँ, गर तो क्या बात है! राह में ....... ॥

एक बादल उठा चाँद को ढँक लिया,
चाँद फिर भी अंधेरे में रोशन रहा।
इस तरह गर्दिशे ग़म तो आते ही हैं,
दोस्ती इनसे कर लें तो क्या बात है! राह में ...........॥

जो जनम ले लिया, जो यहाँ आ गया,
सबके जीने का हक है बराबर यहाँ।
हक बराबर रहे, है ये ख्वाहिशे खुदा,
आदमी मान ले, गर तो क्या बात है! राह में ..........॥

बात तो बात है, बात में कुछ नही,
बात ही बात में बात हो जाती है।
बात बिगड़ने ना पाये, यही बात है,
बात को गर बना दें तो क्या बात है! राह में ...........॥

रोशनी ना रही.....

ये घटा घिर गयी, रोशनी ना रही,
ग़म ना करना, अँधेरा छटेगा ज़रूर।
रात आयी है, इसको तो आना ही था,
ग़म ना करना सबेरा तो होगा ज़रूर॥ ये घटा घिर....... ॥

हैं जो बादल यहाँ, चंद लमहों के हैं,
इनका आना हुआ, समझो, जाना हुआ,
ग़म ना करना बसेरा तो होगा ज़रूर॥ ये घटा घिर........॥

ये जो तूफ़ान है, इसमें ईमान है,
फ़र्ज़ पूरा करेगा चला जाएगा,
इसको मेहमाँ समझकर गले से लगा,
देखना, ग़म-घनेरा घटेगा ज़रूर॥ ये घटा घिर............॥

ज़िन्दगी के कई रंग देखे हैं हमने,
कभी खुशहाल है तो कभी बदहाल है।
वक्त बदले है ये इक घड़ी की तरह,
देखना, सुख का फेरा लगेगा ज़रूर॥ ये घटा घिर..........॥

भूख है, प्यास है, आस-विश्वास है,
शान्ति है, क्रान्ति है, इसमें उपवास है।
ज़िन्दगी ऐसी गर, कर लिए हम बसर,
जग ये जन्नत का डेरा बनेगा ज़रूर॥ ये घटा घिर.........॥

Friday, August 21, 2009

कर्म के दीप

कर्म के दीप यदि तुम जलाते रहो,
कष्ट के सब तिमिर लुप्त हो जायेंगे।
होगा दर्शन त्वरित एक सुप्रभात का,
बंद पंकज-भ्रमर मुक्त हो जायेंगे॥ कर्म के दीप....... ॥

कर निरीक्षण तनिक तू अखिल विश्व का
धरती-अम्बर व् सरिता, सप्त-सिन्धु का।
सबके आधार में तम् ही प्रच्छन्न है,
ज्योति-दाता परन्तु सूर्य प्रसन्न है,
धैर्य से पथ पे यदि तुम निरंतर चलो-
आपदाओं के क्षण गुप्त हो जायेंगे॥ कर्म के दीप.......॥

रात्रि चाहे कुहासों से आछन्न हो,
चाँदनी का गगन-क्षेत्र आसन न हो।
धुंध का ही चतुर्दिक् प्रहर क्यों न हो,
कंटकाकीर्ण आपद् डगर क्यों न हो।
चेत् मस्तिष्क मानव का चैतन्य नही,
स्वप्न-सरगम के सुर सुप्त हो जायेंगे॥ कर्म के दीप...॥

स्वार्थ-लोलुप न हो, कर्म-साधक बनो,
कर्म ही ईष्ट है कर्मोपासक बनो।
सृष्टि का धर्म बस कर्म ही कर्म है,
कर्म ही धर्म है, कर्म ही धर्म है।
कर्म की यष्टि से यदि करो पथ-भ्रमंड,
लक्ष्य जीवन के सब तृप्त हो जायेंगे॥ कर्म के दीप.....॥

झलक ज़िन्दगी की

उजालों ने सबको बहुत कुछ दिया है,
अंधेरों में किस्मत चलो आज़माएँ।
सुकूँ ज़िन्दगी को अंधेरों ने जो दी,
चिरागों की दुनिया में वो मिल न पायें॥ अंधेरों में .......॥

हुई रात रोशन फलक पे सितारे
अंधेरों के साथी हैं यह प्यारे-प्यारे।
सूने गगन में है बज़्मे चरागाँ,
लगे जैसे दीपक दिवाली मनाएं॥ अंधेरों में ...............॥

ज़माने की खुशियों के हक़दार वो हैं,
शब्-ऐ-ग़म के साये तले जो चले हैं।
जिन्हें है अंधेरों से लड़ने की आदत,
उजाले उन्हें कब भला रास आयें॥ अंधेरों में...............॥

जीवन की बगिया में जो गुल खिले हैं,
काटों के साये तले वो पले हैं।
मगर खूबसूरत हैं गुल इस कदर कि,
हजारों उन्हें देखकर मात खाएं॥ अंधेरों में.................॥

दीवानी हो दुनिया भले रौशनी की,
उसे मिल सके ना झलक ज़िन्दगी की।
अंधेरों का जीवन से रिश्ता पुराना,
उजाले में उसको न हम ढूँढ़ पायें॥ अंधेरों में...............॥

Thursday, August 20, 2009

सोने को पहचानो........

पत्थर-दिल रहते हैं,
पत्थर के मकानों में।
मिलती है बला की खुशी,
छप्पर के ठिकानों में॥ पत्थर-दिल...........॥

बालू का घरौंदा है,
जीवन एक सौदा है।
सोने को पहचानो,
माटी के खदानों में॥ पत्थर-दिल............. ॥

क्या बोल हैं सावन के !
क्या कहती पुरवायी !
चंचल नदिया बहती-
मय सी मयखानों में॥ पत्थर-दिल............॥

बागों में मस्ती है,
हर शाख़ महकती है,
क्या स्नेह-सिन्धु उमड़े-
खग-मृग के घरानों में॥ पत्थर-दिल...........॥

पीपल है, पनघट है,
गोरी है, गागर है,
हीरे की कनी सी वो
कुदरत के खजानों में॥ पत्थर-दिल............॥

Wednesday, August 19, 2009

प्रगति-पथ पर........

प्रगति-पथ पर पथिक है, दूर अब मंज़िल कहाँ-
मंज़िलें पावों तले हैं, गर रहे अरमाँ जवाँ।

आदमी तो हौसलों का,
साज़ है, आवाज़ है।
हौसला उसमें रहे तो,
मुश्किलें होंगी फ़ना॥ प्रगति-पथ.........॥

काँटों में कैसे मुस्कुराए,
गुल गुलाबों का सदा।
कितना हसीं है गुल कँवल का,
गोया हो कीचड़ सना॥ प्रगति-पथ........॥

तो लो, सबक ले लो इन्ही से-
ज़िन्दगी के राज़ का।
जैसे ये गुल हैं खिले,
तुम भी खिल जाओ यहाँ॥ प्रगति-पथ....॥

ख़ुद को समझो तो
खुदायी आप अपने आएगी।
हर बलंदी चूम लेगी
तेरे क़दमों के निशाँ॥ प्रगति-पथ..........॥

जोखिमों से जूझना तो
फ़र्ज़ है इंसान का।
गर इन्हे ठुकराया तो
ठुकरा तुझे देगा जहाँ॥ प्रगति-पथ पर...॥

माई-सुमिरन

हे माई !
हम त तोहार करीं वंदना ॥
हम मुरख नाहि हमरे गियनवां,
येही लिए तोहरा क धरीं धियनवां।
कछु अइसन कयि दा माई-
करीं हम रचना॥
हे माई ! हम त तोहार ............. ।

ना एको फूल ना आखर बाती,
कछु कहि पाई ना बेधैले छाती।
हमरा के दे दा माई-
ज्ञान भरी रसना॥
हे माई ! हम त तोहार .............. ।

बड़ नीक लागे तोहरी हंस क सवरिया,
बीनवा से झरेले रस-फुलझरिया।
इहे रूप धयि के-
उतरिजा मोरे अंगना॥
हे माई ! हम त तोहार............... ।

ज्ञान
-विज्ञान क तूं एक सगरवा,
एक बूंद खातिर ह्करे हियरवा।
हे माई ! अउर कछु-
मोरी गरजि ना।।
हे माई ! हम त तोहार............... ।

हम हईं माटी क एगो पुतलवा,
मनई बना दा एका देके परसदवा।
एहै आस लेके-
करीं तोहार अर्चना॥
हे माई ! हम त तोहार................ ।

एक झलक ज़िन्दगी की....दो शब्द आभार के-

प्रस्तुत कविता-संग्रह मेरी वर्षो की कमाई है। माँ शारदे की कृपा मुझे अकिंचन पर कब हुई? मुझे कुछ पता नही और मैं कमाने निकल पड़ा। आज तक कमाता ही रहा और जो कुछ पूंजी संचित कर सका, आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ।
नाम देने की बात आई, समझ नही पा रहा था की इसे क्या नाम दूँ? काफ़ी ऊहापोह की स्थितियों से गुजरते हुए इसका नामकरण हो सका। दुश्वारियां झेलनी इसलिए पड़ी की चिंतन की कोई एक ख़ास दिशा नही थी। मन-मस्तिष्क कई विधाओं में कार्य कर रहा था। संकलन पर विहंगम दृष्टि डालने पर  परिणाम स्पष्ट हो जाता है। ज़िन्दगी के तमाम मसाइल पर मंथन करते-करते विचार-भाव एक-एक आकार धारद करते गए। परिणामतः, संग्रह कविताओं के विभिन्न रंगों की एक अल्पना हो गया।
मैं उन तमाम व्यक्तियों एवं परिस्थितियों, जिनसे मुझे पदे-पदे प्रेरणा मिली तथा मैं कुछ लिखने में समर्थ हो सका, का तहेदिल से शुक्रिया अदा करता हूँ।
अपरंच, डॉ संतोष जी साधुवाद के पात्र हैं जिन्होंने बड़ी ही गंभीरता से संकलन का अवलोकन किया तथा अपने विचारों से आपको अवगत कराया। अपने से सभी बड़े-बुजुर्गों के आर्शीवाद की कामना करते हुए सुधि पाठक जन के मन को यदि मेरे विचार छु सके तो मैं अपने प्रयास को सफल मानूंगा।
मेरे पास वे शब्द नही हैं जिनसे मैं मेरे अपने भाई श्री सर्वेन्द्र विक्रम सिंह के प्रति आभार व्यक्त कर सकूँ। मेरे विचार एक आकार पा सकें, यह इन्ही की प्रेरणा एवं परिश्रम का प्रतिफल है।
थोड़ा कुछ और-
मुझे तेरी फितरत से नफरत नही, ऐ दुनिया वालों!
आख़िर, मैं भी तो एक हरफ हूँ तेरी ही रौशनाई का॥
-डॉ हरिनाथ मिश्र