डर है,सदानीरा गंगा कहीं कदा नीरा-न बन जाये।
मसलन,धरती पर कभी सतत बाहिनी-पाप नाशिनी-
लोक तारिणी-पवित्र सलिला बहती थी कोई गंगा,
जिसमें पर्वों-उत्सवों पर लोग डुबकी लगा कर -
तर्पण कर समझ लेते थे स्वयम को पाप-मुक्त।
डर है,हरी-भरी वनस्पतियों-पेड़-पौधों से आच्छादित,
जंगल के पूर्णरूपेण अमंगल का ,
अर्थात,थी कभी शोभायमान वसुन्धरा पेड़-पौधों से,
तनें जिनके सख़्त, पर भीतर गीली लकड़ी की,
कोमल मांसलता से युक्त -
शाखों पे जिनकी विराजमान रहते थे हरे पत्ते,
रंग-बिरंगे पुष्प एवम फल-कुछ खट्टे,कुछ मीठे।
डर है-हरे-भरे जंगल की जगह
कठोर-निष्प्राण -निश्चेत कंक्रीट के जंगल की -
जो जंगल तो है-बृक्षों वाला -शाखों वाला-
फूल-पत्तों व फल वाला।
मगर, वृक्षों के तने हैं-ईंट-पत्थर-सीमेंट के,
बड़े ही कठोर,शाखाएं-बेड-रूम,ड्राइंग-रू म,
गेस्ट-रूम,वाश-रूम आदि-आदि।
ऐसे जंगल मे पंछियों की कलरव की जगह,
सुनायी देता है-आपसी खींच-तान, मज़हबी
मन-मुटाव,लड़ाई-झगड़े,अत्याचार- हत्या व
लूट-पाट का बेसुरा रव।
डर है,मिल्स-फैक्ट्रीज-आधुनिक औद्योगीकरण
की चपेट में इसके आने का-
डर है-वायु-प्रदूषण के उस भयावह स्वरूप का-
जब जीव तो जन्म लेगा-
पर,हो जाएगा महरूम भरपूर बचपन से-
किशोरावस्था-युवावस्था-बुढापा की बात तो दूर।
बची-खुची मनुजता करेगी शोषण एक-दूजे का,
बुझायेगी प्यास एक-दूसरे के रक्त से,
मिटाएगी भूख एक-दूसरे की मज्जा-मांस से,
हो जायेगा मुक़म्मल अभाव,
जल-वायु-अन्न-फूल-फल का-
विनाश-सर्वनाश!!
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