कोई किसी का दुनिया में होता नहीं सगा,
अन्तिम घड़ी में रिश्ते,देते हैं सब दगा।
मां-बाप-भाई-भगिनी,होते हैं चार दिन के-
पिंजरे में क़ैद पंछी,हो जाता झट दफ़ा।।
कलियाँ चमन में खिल के,कुछ पल में बिखरतीं,
रवि-रश्मियाँ प्रखर भी,हर शाम को ढलतीं।
हो जातीं दफ़्न सांसें, झट-पट बिना रुके-
रक्खा जिन्हें था सबने,सीने से यूँ लगा।।
सम्बन्ध अग्नि-जल का,शाश्वत-यथार्थ है,
आकाश औ पवन का,अविरल-अबाध है।
सरिता का जल है मिलता,सागर से जा गले-
निःस्वार्थ प्रेम-रस में,सम्बन्ध यह पगा।।
बर्फीली चोटियों पे,चन्दा की जो चमक,
फूलों पे भनभनाते,भौरों की जो भनक।।
कल थी औ आज है,रहेगी यह सदा-
कोई नहीं सकेगा,इसको कभी भगा।।
ब्रह्म से अक्षर औ अक्षर से ब्रह्म है
सम्बन्ध यह चिरातन, इसमें न छद्म है।
ब्रह्म को तो केवल,साक्षर ही समझता-
कोई सके ना ब्रह्म के,अस्तित्व को डिगा।।
सृष्टि के पहले औ न बाद सृष्टि के,
न था,न कुछ रहेगा,सिवाय वृष्टि के।
बस ब्रह्म ही है शाश्वत औ ब्रह्म रहेगा-
अभिद-अमिट-अक्षत-असुप्त औ जगा।।
No comments:
Post a Comment