Saturday, August 24, 2019

उमड़ चाहतों का...




आज फिर याद आया उन्हें देखकर,
जो गुजरा ज़माना वर्षों पहले था छाया।
फिर जग उठी इक ललक ज़िन्दगी में-
उमड़ चाहतों का समन्दर फिर आया।।
     अरमान-पेटिका पे जो ताले जड़े थे,
     वो खुलने लगे पा इशारा किसी का।
     डूबती एक किश्ती को जैसे अचानक,
     मिल गया हो सुरक्षित किनारा नदी का।
     चाहतें सूखे पत्ते सी जो मर रहीं थीं-
      उन्हें प्रेम-वर्षा ने फिर से जिलाया।।
                            उमड़ चाहतों का.....।।
अतृप्त प्यास लेके वो मन का पंछी,
जा बैठा अंधेरे में छुप कर कहीं।
कभी हो विकल ढूंढता आशियाँ वो,
खिन्न होकर पुनः लौट आये वहीं।
उसे मिल गया ठौर फिर से अचानक-
बहारों ने दौरे खिज़ां को भगाया।।
              उमड़ चाहतों का.........।।
सूखे दरख़्तों पे पत्तों का उगना,
होता नहीं कभी सम्भव जगत में।
टूटे हुए बिखरे शीशे के टुकड़ों का,
जुड़ना क़ुदरती न सम्भव जगत में।
पर कर दिया आज सम्भव असम्भव को-
जो मन मेरा पा दरस मुस्कुराया।।
                उमड़ चाहतों का........।।
घुल गयी अब महक सांस की सांस में,
सारे शिकवे-गिले बदले विश्वास में।
तार नज़रों के नज़रों से अब जुड़ गए,
दिल जुड़ गए फिर मिलन-आस में।
थम गयी थी जो पहिया रथ ज़िंदगी की-
पुनः आज उसको किसी ने चलाया।।
    उमड़ चाहतों का समन्दर फिर आया।।

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