Saturday, January 5, 2019

पंछी दरख़्त छोड़ के...


पंछी दरख़्त छोड़ के खम्भों पे आ गए,
बदले मिजाज़-ए-मौसम में उन्हें तार भा गए।
कूड़े के इस पहाड़ पे वे उड़-उड़ के यूँ फिरें-
मानो कि ज़िन्दगी का वे सामान पा गए।।
             पंछी दरख़्त छोड़ के....।
जंगल इमारतों के फैले हैं इस क़दर,
कि बेज़ार हो परिन्दे उड़ते  तितर- बितर।
बिन ठौर औ ठिकाने के करते भला वो क्या-
आफ़त-विपति के बादल उनपे यूँ छा गए।।
              पंछी दरख़्त छोड़ के....।
लीलतीं हैं सड़कें अब खेतों औ जंगलों को,
लूटती है दुनिया पशु-पंछि-स्थलों को।
आने लगे हैं गांवों में अब बाघ औ हिरन-।
लेने को अपना हक़ जो इंसान खा गए।।
               पंछी दरख़्त छोड़ के....।
ख़ुमार क्रूरता का लोगों पे चढ़ रहा,
अत्याचार जानवरों पे बेशुमार बढ़ रहा।
पर्यावरण की शुद्धता पशु-पंछियों से है-
प्राकृतिक प्रकोप में तो कुनबे समा गए।।
                 पंछी दरख़्त छोड़ के....।
नदियाँ-दरख़्त-पर्वत-झीलें हैं ज़िन्दगी,
पूजा करो प्रकृति की पावोगे हर खुशी
करना नहीं क़ुदरत से कभी बेवजह की छेड़-छाड़-
क़ुदरत का ही तो क्रोध सुनामी को ढा गए।।
                  पंछी दरख़्त छोड़ के....।
जंगल अमूल्य निधि है, औषधि अमोघ है,
नदियों का जल है अमरित, पावन सुभोग है।
चाहिए इन्हें समझना बस देव का प्रसाद -
धरती पे इस प्रसाद को ईश्वर बसा गए।।
                   पंछी दरख़्त छोड़ के....।

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