सूर्यास्त होने पर जब साँझ होती है
यथार्थ से अनभिज्ञ मन,
अन्धकार के भय से ठिठुर सा जाता है॥
नादान बेखबर पंछी की भांति
जो अचानक बाज की चंगुल में फँस जाता है,
चीख उठता है, चिल्ला उठता है, अन्धकार की
चपेट से मूरख मन॥
इसे अपनी नियति का आभास नही,
यदि संज्ञान है भी तो अज्ञान बन जाता है,
रोज़ सीखता है, रोज़ भूल जाता है,
निश्चेष्ट, निरुत्साहित, ठगा सा, कटा-कटा सा-
यह कम्पित मन॥
इसे तलाश रहती है हर पल,
शायद किसी चराग की।
ऐसे चराग की जो कभी बुझे नही,
भला, ऐसा कभी हो सकता है कि-
चराग जले और बुझे नही!
जान ले रे भ्रमित मन॥
चराग अन्धकार के क्षणिक लोप का एक पल है,
और है भी तो शायद एक दिखावा है, एक छल है।
एक मृगतृष्णा है-
चमकती जल-बूंदों सी जलती रेतों की,
देख ले रे, चकित मन॥
अन्धकार की ओर जाना प्रकाश से,
नही, कदापि ठीक नही।
नही, यही ठीक है; येही सत्य है।
नही तो चराग तले अँधेरा कैसे होता?
वस्तुत:, हम जितना ही तलाश करते रहते हैं,
प्रकाश की अथवा चराग की,
उतना ही भटकते रहते हैं जीवन की
उपत्यका में-
अंधकार ही है जिसकी अन्तिम परिणति,
कुछ क्षोभ होता है, बढ़ जाती है उद्विग्नता,
पर ऐसा नही-अन्धकार ही तो होता है-
उदगम-स्थल प्रकाश का-
जैसे भानु प्रकाश का निशि-तम से
शुभ प्रभात के साथ उदीयमान होना।
समझ ले रे, विकल मन॥
यथार्थ से अनभिज्ञ मन,
अन्धकार के भय से ठिठुर सा जाता है॥
नादान बेखबर पंछी की भांति
जो अचानक बाज की चंगुल में फँस जाता है,
चीख उठता है, चिल्ला उठता है, अन्धकार की
चपेट से मूरख मन॥
इसे अपनी नियति का आभास नही,
यदि संज्ञान है भी तो अज्ञान बन जाता है,
रोज़ सीखता है, रोज़ भूल जाता है,
निश्चेष्ट, निरुत्साहित, ठगा सा, कटा-कटा सा-
यह कम्पित मन॥
इसे तलाश रहती है हर पल,
शायद किसी चराग की।
ऐसे चराग की जो कभी बुझे नही,
भला, ऐसा कभी हो सकता है कि-
चराग जले और बुझे नही!
जान ले रे भ्रमित मन॥
चराग अन्धकार के क्षणिक लोप का एक पल है,
और है भी तो शायद एक दिखावा है, एक छल है।
एक मृगतृष्णा है-
चमकती जल-बूंदों सी जलती रेतों की,
देख ले रे, चकित मन॥
अन्धकार की ओर जाना प्रकाश से,
नही, कदापि ठीक नही।
नही, यही ठीक है; येही सत्य है।
नही तो चराग तले अँधेरा कैसे होता?
वस्तुत:, हम जितना ही तलाश करते रहते हैं,
प्रकाश की अथवा चराग की,
उतना ही भटकते रहते हैं जीवन की
उपत्यका में-
अंधकार ही है जिसकी अन्तिम परिणति,
कुछ क्षोभ होता है, बढ़ जाती है उद्विग्नता,
पर ऐसा नही-अन्धकार ही तो होता है-
उदगम-स्थल प्रकाश का-
जैसे भानु प्रकाश का निशि-तम से
शुभ प्रभात के साथ उदीयमान होना।
समझ ले रे, विकल मन॥