जब दरख्तों पे पत्ते उगे,
फूल खिलते ही खिलते गए |
मन में भीनी महक जब बसंती-
हम महकते-महकते गए ||
ख़ुमारी का छाया था आलम,
बेख़बर थीं हवाएं, फज़ाएँ |
बेख़ुदी का वो आलम ना पूछो-
हम बहकते-बहकते गए ||
शोख़ियों से भरी थीं कली सब,
मस्तियों में सनी सब गली |
सुर्ख़ शाख़ों पे बैठे पखेरू-
सब चहकते-चहकते गये ||
नूर था, रागिनी की खनक थी,
चाँद की चाँदनी थी मचलती |
शोख़-चंचल हसीना सी ऋतु में-
हम मचलते-मचलते गये ||
उनसे नज़रे हुईं चार जब,
वक़्त मानो ठहर सा गया |
झील के जैसे ठहराव में-
हम सरकते-सरकते गये ||
बेख़ुदी का वो आलम न पूछो-
हम बहकते-बहकते गये ||
Wednesday, November 30, 2011
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