गाँव की गलियाँ सुनी लगतीं,
सूने बाग़-बगीचे।
जलाभाव में सूखे पड़ गये,
खेत सभी बिन सींचे।
चलो,जलाशय-नदी बचायें-प्रकृति-प्रेम की अलख जगायें।।
भीषण ताप प्रचण्ड सूर्य का,
धरती को ललकारे।
कहे प्रदूषण रोको अपना,
जो हो साँझ-सकारे।
मौसम हाहाकार मचायें-प्रकृति-प्रेम की अलख जगायें।।
जंगल जलें, समन्दर उफ़ने,
तूफानों का रेला।
ज्वालामुखी-अवनि-कम्पन का,
रह-रह लगता मेला।
चलो,क़ुदरती भूत भगायें-प्रकृति-प्रेम की अलख जगायें।।
कहीं बवण्डर-चक्रवात से,
वृक्ष-वनस्पति टूटे।
बरपे कहर कहीं विश्व में,
जब-जब घन-घट फूटे।
चलो, रुष्ट जल-देव मनायें-प्रकृति-प्रेम की अलख जगायें।।
माटी खोये उपजाऊपन,
जल का स्तर घटता।
पशु-पक्षी का लोप देख कर,
मन-चित सबका फटता।
चलो,परिन्दा-वंश रखायें-प्रकृति-प्रेम की अलख जगायें।।
अन्धाधुन्ध प्रयोग मशीनी,
घातक-मारक जानो।
विष घोले सबके जीवन में,
ऐसा इसको मानो।
चलो,न ऐसा रोग लगायें-प्रकृति-प्रेम की अलख जगायें।।
जल-कण,भोजन-कण की रक्षा,
मात्र धर्म है अपना।
यदि हो जीवन ऐसा तो,
साकार हो सबका सपना।
चलो,नींद से फिर जग जायें-प्रकृति-प्रेम की अलख जगायें।।
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